सोमवार, 3 फ़रवरी 2020


निर्भया काण्डमें फाँसीका टलना -- घोर प्रशासनिक विफलता
-- लीना मेहेंदले
निर्भया काण्डमें वर्ष होनेके पश्चात भी जिस प्रकार निर्भयाकी माँ श्रीमती आशा देवीको कोर्ट दर कोर्ट भटकना पड़ रहा है, निर्भयाकी स्मृतिमें आंसू बहाने पड रहे हैं, और सर्वोच्च न्यायालयके निर्णयके बाद भी आरोपियोंकी फाँसी प्रत्यक्ष लागू होती नही दीखती, उसे देखकर अपने देशकी पूरी न्याय व्यवस्थापर और प्रशासनिक व्यवस्थापर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा हो जाता है।
साधारणतया लोगोंकी मान्यता होती है कि कड़े कानून ना होने के कारण निर्भया जैसे काण्डमें शीघ्रतापूर्वक व उचित प्रकारसे न्याय नहीं मिल पाता लेकिन लोग नही समझ पाते कि कड़े कानूनकी अपेक्षा आज देशको प्रभावी प्रशासनिक क्षमताकी आवश्यकता है जिससे ऐसे काण्डमें जांच ठीक प्रकारसे हो, कोर्टमें पेशी ठीक प्रकारसे हो और पूरी व्यवस्था स बातपर ध्यान दे कि पीड़ित परिवारको जल्दीसे जल्दी न्याय मिले।
निर्भया बलात्कार काण्ड जैसा दुर्भावपूर्ण और घृणास्पद काण्ड इस देशमें शायद ही कोई हुआ हो इसके विरोधमें जो जन आक्रोश उठा उसमें भी लोगोंकी संवेदनशीलता दिख पड़ी लेकिन दिल्ली सरकारमें बैठे जो राजनीतिक नेता या प्रशासकीय अधिकारी हैं, क्या उनकी संवेदनशीलता पूरी तरहसे मर चुकी है ? यह प्रश्न इसलिए उपस्थित होता है क्योंकि इस काण्डसे संबंधित कई प्रशासकीय फाइलें दिल्ली सरकारके पास आती है और प्रशासकोंसे अपेक्षा की जाती है कि वे इन फाइलोंपर जल्दसे जल्द ठोस कार्रवाई करें लेकिन निर्भया काण्डमें ऐसा होता हुआ बिल्कुल भी नहीं दिखाई पड़ता
इस काण्डकी जब जाँच चल रही थी और कोर्टमें पेशी हो रही थी उन दिनों लोगोंने यहाँ तक देखा कि दिल्ली सरकारके कई राजनेता आरोपियोंके साथ सहानुभूति रखते थे एक ऐसे आरोपीको नाबालिग बताकर छोड़ दिया गया है जिसकी आयु साडेसतरह वर्षसे भी अधिक अर्थात कानूनी बालिग होनेसे बस चार छः महीनेकी दूरी पर थी सी आरोपीने सबसे अधिक क्रौर्यका परिचय दिया, इसीने बाकी आरोपियोंको इस कृत्यके लिए उकसाया, इसीने निर्भया पर दो बार बलात्कार किए और सबसे अधिक क्रूरता दिखाते हुए उसकी मृत्युका मुख्य कारण बना। उसे नाबालिग कहना ही मासूमियतका अपमान है। फिर भी दिल्लीके राजनेता उसीसे सहानुभूति रखते थे, उससे मिलने जाया करते थे, और उसे कोर्टकी बजाए सुधार गृहमें रखने और वहाँ सारी सुविधाएँ झटपट मुहैया करानेके पीछे भी वही सहानुभूति कारण बनी। इस मुद्देपर कानूनका जो भी प्रावधान है उसके अनुरूप जो भी फैसला करना है वह कोर्ट अपनी समझमें कर सकती है लेकिन जब राजनेता ऐसे आरोपीके साथ सक्रिय सहानुभूति दिखाते हैं और उसे सुधार गृहमें रखकर वहाँ भी हर सुविधा देनेहेतु अपना वजन खर्च करते दीखते हैं तो एक गलत संदेश जाता है। इसकी चर्चा इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि इस व्यवहारका परिणाम आगेतक असरवाला होता है।
खैर, निर्भया केसमें अन्य चार आरोपियोंके विरुद्ध नीचली अदालतें, हाईकोर्ट आदिसे होते हुए केस सर्वोच्च न्यायालयमें पहुँची और वहाँ चारोंको फाँसीकी सजा कायम हुई। एक बार जब सर्वोच्च कोर्टका निर्णय आ जाता है उसके बाद प्रशासकीय अधिकारियोंका उत्तरदायित्व आरंभ हो जाता है यह उनका काम है कि फाँसीकी फाइलको शीघ्रातिशीघ्र प्रोसेस करें जितनी भी अन्य कानूनी आवश्यकताएँ हैं उन्हें पूरा करें, अगर आरोपी समय रहते दया याचिका दाखिल नहीं करते हैं तो उनका मृत्युदंडका वारंट जारी करें दिल्ली सरकारने ऐसा कुछ भी नही किया। बल्कि उनका कुल व्यवहार यही बताता हैै कि किसी कारणवश वे इसी बातके पक्षधर रहे कि सजा कैसे टाली जाय। और हो न हो इसका कारण था कि वे अपने उन राजनीतिक आकाओंका मुँह तक रहे थे जिन्होंने पांचवे घृणित अपराधीके प्रति इतनी सहानुभूति दर्शाई थी। शायद ऐसा न भी हुआ हो, शायद वो कहें कि हमारा वर्कलोड बहुत अधिक था। लेकिन निर्भयाका पूरा मामला इतना भयानक था कि उसकी फाइलको अन्य रुटीन फाइलोंमें दबाकर रखना भी इन अधिकारियोंकी संवेदनहीनता और उनमें तारतम्यके अभावको ही दर्शाता है।
इसीलिए मेरे विचारसे दिल्ली सरकारके विधि विभाग, जेल विभागके अधिकारी तथा मुख्य सचिवकी यह वैयक्तिक जिम्मेदारी थी जिसे उन्होंने नही निभाया। इसके लिये न्हें व्यक्तिगत रूपसे दोषी माना जाना चाहिये। लेकिन प्रशासकीय विफलताका पूरा इतिहास भी जनताके सामने आना चाहिये। इसका आरंभ करते हुए सबसे पहले उनसे सूचना अधिकारके अंतर्गत कुछ जानकारियाँ माँगी जा सकती हैं। एक नमूना प्रश्नावली मैं यहाँ उद्धृत करना चाहती हूँ जो दिल्ली सरकारके विधि विभागमें तथा मुख्य सचिवके कार्यालयमें लगाई जाये और ये जानकारी माँगी जाये कि निर्भया रेप काण्डसे संबंधित जो प्रत्येक फाइल आपके विभागमें आई उनका फाईलका नाम व आईडेंटिफाइंग नंबर बताये, विभागमें पहली बार आनेकी तारीख और फाइलपर पहली बार उठाया गया मुद्दा बतायें, फाईलके आनेके दिनांकसे ३१ दिसंबर २०१९ तक फाइलके उत्तरदायी हर डेप्यूटी सेक्रेटरीका नाम तथा कार्यकाल बतायें। साथ ही यह भी पूछा जाय कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा फांसीकी सजा सुनानेके पश्चात डेथ वॉरंट निकालने हेतु कभी भी किसी फाइलपर मुद्दा उठाया गया? यदि हाँ तो उसकी एक प्रत उपलब्ध करायें।
आजतक सूचना अधिकार कानूनका उपयोग प्रायः व्यक्तिगत कारणोंमें किया जाता रहा है। लेकिन निर्भया जैसे काण्डमें प्रशासनकी विफलताको उजागर करने हेतु, और संभवतः उसमें सुधार लानेहेतु भी इसका उपयोग कर सामान्य नागरिक निर्भयाके प्रति अपनी श्रद्धांजली दे सकता है। यह इसलिये अत्यावश्यक है कि यही प्रशासनिक विफलता जारी रही तो आनेवाले दिनोंमें ऐसे ही काण्डोंमें हमारे ही कोई दुलारे प्रताडित हो सकते हैं।

लेकिन हम ये भी नही कह सकते हैं कि पूरा उत्तरदायित्व केवल दिल्ली सरकारका है। हमारी न्यायव्यवस्था ही गलत मुद्देपर टिकी है। यहाँ शीघ्रतासे दण्डविधानका उद्देश्य नही है बल्कि बातोंको खींचते रहनेका उद्देश्य दीखता है और वह भी न्यायके नामपर। तभी तो दो कुतर्कोंका आज सामना कर पड रहा है। पहला ये कि दोषियोंको अलग अलग फांसियां नही हो सकतीं, जब होंगी तब एक साथ होंगी। अर्थात यदि ४० लोग गँग रेप करेंगे और हरेक दोषी एक के बाद एक कानूनी पेंच लडायेगा तो सबके सब बच जायेंगे। दुसरा कुतर्क यह भी दिया कि एक आरोपीपर अलगसे चोरीका मुकदमा भी है, उसके पूरा होनेतक फांसी नही हो सकती। अर्थात रेपका दोषी अपने ऊपर ऐसे आलतूफालतू FIR करवा ले तो भी उसके बच निकलनेकी पूरा गॅरंटी हो जायेगी।
ऐसे कुतर्कोंसे यदि देशकी न्यायव्यवस्था चलती रही तो देशमें जंगलराज आते देर नही लगेगी। निर्भयाकाण्डमें फांसीको बारबार टलते देख लोग हैदराबादवाली व्यवस्थाको ही सही न्याय बताने लगे हैं, इस बातको हमारे न्यायधीशोंको नही भूलना चाहिये।
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